मीडिया ग्रुप, 28 जनवरी, 2022
सिमरप्रीत सिंह, एडिटर, मीडिया ग्रुप
भारत भूमि हमेशा से ही वीरों की जननी रही है। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में ऐसे कई वीर हुए जिन्होंने देश को आजादी दिलाने में अपनी जान की भी परवाह नहीं की। ऐसे ही एक वीर थे शेर-ए-पंजाब लाला लाजपत राय। लाला लाजपत राय भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के वह महान सेनानी थे जिन्होंने देश सेवा के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी और अपने जीवन का एक-एक कतरा देश के नाम कर दिया।
लाला जी का जन्म 28 जनवरी 1865 को पंजाब के फिरोजपुर जिले के धूदिकी गांव में हुआ था। स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने कानून की उपाधि प्राप्त करने के लिए 1880 में लाहौर के राजकीय कालेज में प्रवेश ले लिया। इस दौरान वह आर्य समाज के आंदोलन में शामिल हो गए।
हिसार में लाला जी ने कांग्रेस की बैठकों में भी भाग लेना शुरू कर दिया और धीरे−धीरे कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता बन गए। 1892 में वह लाहौर चले गए। 1897 और 1899 में जब देश के कई हिस्सों में अकाल पड़ा तो लाला जी राहत कार्यों में सबसे अग्रिम मोर्चे पर दिखाई दिए।
आजादी की लड़ाई का इतिहास क्रांतिकारियों के विविध साहसिक कारनामों से भरा पड़ा है और ऐसे ही एक वीर सेनानी थे लाला लाजपत राय जिन्होंने देश के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। लाला लाजपत राय आजादी के मतवाले ही नहीं बल्कि एक महान समाज सुधारक और महान समाजसेवी भी थे।
यही कारण था कि उनके लिए जितना सम्मान गांधीवादियों के दिल में था उतना ही सम्मान उनके लिए भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिकारियों के दिल में भी था। लाला जी का जन्म 28 जनवरी 1865 को पंजाब के फिरोजपुर जिले के धूदिकी गांव में हुआ था। स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने कानून की उपाधि प्राप्त करने के लिए 1880 में लाहौर के राजकीय कालेज में प्रवेश ले लिया। इस दौरान वह आर्य समाज के आंदोलन में शामिल हो गए।
लाला जी ने कानूनी शिक्षा पूरी करने के बाद जगरांव में वकालत शुरू कर दी। इसके बाद वह रोहतक और फिर हिसार में वकालत करने लगे। आर्य समाज के सक्रिय कार्यकर्ता होने के नाते उन्होंने दयानंद कालेज के लिए कोष इकट्ठा करने का काम भी किया। वह हिसार नगर निगम के सदस्य चुने गए और बाद में सचिव भी चुन लिए गए।
स्वामी दयानंद सरस्वती के निधन के बाद लाला जी ने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर एंग्लो वैदिक कालेज के विकास के प्रयास करने शुरू कर दिए। हिसार में लाला जी ने कांग्रेस की बैठकों में भी भाग लेना शुरू कर दिया और धीरे−धीरे कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता बन गए।
1892 में वह लाहौर चले गए। 1897 और 1899 में जब देश के कई हिस्सों में अकाल पड़ा तो लाला जी राहत कार्यों में सबसे अग्रिम मोर्चे पर दिखाई दिए। जब अकाल पीडि़त लोग अपने घरों को छोड़कर लाहौर पहुंचे तो उनमें से बहुत से लोगों को लाला जी ने अपने घर में ठहराया। उन्होंने बच्चों के कल्याण के लिए भी कई काम किए।
जब कांगड़ा में भूकंप ने जबरदस्त तबाही मचाई तो उस समय भी लाला जी राहत और बचाव कार्यों में सबसे आगे रहे। अंग्रेजों ने जब 1905 में बंगाल का विभाजन कर दिया तो लाला जी ने सुरेंद्र नाथ बनर्जी और विपिन चंद्र पाल जैसे आंदोलनकारियों से हाथ मिला लिया और अंग्रेजों के इस फैसले की जमकर मुखालफत की।
उन्होंने देशभर में स्वदेशी वस्तुएं अपनाने के लिए अभियान चलाया। तीन मई 1907 को ब्रिटिश हुकुमत ने उन्हें रावलपिंडी में गिरतार कर लिया। रिहा होने के बाद भी लाला जी आजादी के लिए लगातार संघर्ष करते रहे। लाला जी ने अमेरिका पहुंचकर वहां के न्यूयार्क शहर में अक्तूबर 1917 में इंडियन होम रूल लीग आफ अमेरिका नाम से एक संगठन की स्थापना की।
लाला जी परदेस में रहकर भी अपने देश और देशवासियों के उत्थान के लिए काम करते रहे। 20 फरवरी 1920 को जब भारत लौटे तो उस समय तक वह देशवासियों के लिए एक नायक बन चुके थे। लाला जी ने 1920 में कलकत्ता में कांग्रेस के एक विशेष सत्र में भाग लिया।
वह गांधी जी द्वारा अंग्रेजों के खिलाफ शुरू किए गए असहयोग आंदोलन में कूद पड़े जो सैद्धांतिक तौर पर रौलेट एक्ट के विरोध में चलाया जा रहा था। लाला लाजपत राय के नेतृत्व में यह आंदोलन पंजाब में जंगल में आग की तरह फैल गया और जल्द ही वह पंजाब का शेर या पंजाब केसरी जैसे नामों से पुकारे जाने लगे।
लाला जी ने अपना सर्वोच्च बलिदान साइमन कमीशन के समय दिया। तीन फरवरी 1928 को कमीशन भारत पहुंचा जिसके विरोध में पूरे देश में आग भड़क उठी। लाहौर में 30 अक्तूबर 1928 को एक बड़ी घटना घटी जब लाला लाजपत राय के नेतृत्व में साइमन का विरोध कर रहे युवाओं को बेरहमी से पीटा गया।
पुलिस ने लाला लाजपत राय की छाती पर निर्ममता से लाठियां बरसाईं। वह बुरी तरह घायल हो गए और आखिरकार इस कारण सत्रह नवम्बर 1928 को उनकी मौत हो गई। लाला जी की मौत से सारा देश उत्तेजित हो उठा और चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव व अन्य क्रांतिकारियों ने लाला जी की मौत का बदला लेने की ठानी।
इन जांबाज देशभक्तों ने लाला जी की मौत के ठीक एक महीने बाद अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर ली और सत्रह दिसंबर 1928 को ब्रिटिश पुलिस के अफसर सांडर्स को गोली से उड़ा दिया। लाला जी की मौत के बदले सांडर्स की हत्या के मामले में ही राजगुरु, सुखदेव और भगत सिंह को फांसी की सजा सुनाई गई।